"ये दाग दाग उजाला ये शब-गज़ीदा सहर,
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं"
फ़ैज़ साहब ने ये नज़्म लिखी थी, 1947 में ।
आजादी को फ़ैज़ ऐसे परिवर्तन के रूप में
देखना चाहते थे,
जो अमीरों - गरीबों के फासले कम कर देगी,
मुल्क में खुशहाली लाएगी।
पर बंटवारा और दंगों में
अपने ख्वाबों के मुल्क को जलता देख कर ही
ये सच उन्होंने लिख डाला।
"Happy independence day"
के संदेश आ रहे है सुबह से, पर कोई बता नही रहा
किसकी इंडिपेंडेंस की खुशिया बांट रहे है,
क्योंकि भारत सिर्फ एक जमीं के टुकड़े से कहीं ज्यादा है।
आजाद भारत के कुछ कायदे भी थे हमारे आइन में,
बिना किसी धार्मिक भेदभाव के नागरिकता थी,
निष्पक्ष न्यायपालिका और जवाबदेह सरकार थी,
आज का भारत नागरिकता के लिये धर्म पूछता है,
न्यायपालिका को आलोचना से चिढ़ है
और न्यायाधीश साहब को सरकार और राज्यसभा से प्रेम।
सरकार की कोई जवाबदेही नही,
सिर्फ मन की बात है,
सवाल जो पुछते है कोई,
वो जेलों में है ...
अखिल गोगोई या डॉक्टर काफिल की तरह।
आजाद भारत हुकूमतों को सच का आईना दिखाते
गणेश शंकर विद्यार्थी और तिलक सरीखे पत्रकारो से प्रभावित था,
आज के भारत मे
पत्रकार पक्षकार बन गए है हुक्मरानों के।
आजाद भारत गांधी को राष्ट्रपिता मानता था,
आजकल गांधी को देशद्रोही बोलने वाले संसद में है
भारत की आत्मा इसके गांवो और किसानों में बसती है,
अब साल में 11000 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे है।
क्या वाकई आजाद है हम ?
या गुलाम हो गये है,
किसी की साम्प्रदायिक महत्वाकांक्षाओं के।
सच छुपा रहे है हम अपने ज़मीर से,
या सरकार झुठला रही है हमारे सच को?
फर्जी अन्धे राष्ट्रवाद की आड़ में,
शोषण के सच को दबाया जा रहा है।
पर जैसे कि पाश ने कहा है:
"सच घास है,
-तुम्हारे हर किये धरे पर उग आएगा"
Happy Independence Day!!