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कलमक्रान्ति : August 2014

अपने आजाद विचार,व्यंग्य या सुझाव रखने के लिए इस ब्लॉग पर मुझे या आपको कोई मनाही नहीं है
-कलमक्रान्ति

Saturday, August 23, 2014

पलायन

एक शख्स जिसकी सोच और विचारों का अनुसरण करता हूँ ने एक बार कहा था पलायन का मतलब है संभावनाओं की तलाश में अपने क्षेत्र से बाहर निकलना , पलायन की इस परिभाषा से काफी हद तक संतुष्ट हूँ पर एक शंका है कि क्या पलायन हर बार अपने उद्देश्यों के साथ सफल होता है ?
ज्यादातर लोग पलायन करते है रोजगार के लिए , पर बड़े बड़े सपने रखने वाले हजारों नौजवान समय से पहले पलायन कर जाते है अच्छी शिक्षा और उज्जवल भविष्य के लिए।
निकलते है मेरे जैसे लोग अपने छोटे शहरों के सरकारी स्कूलों से , इन स्कूल्ज के  नामों में कहीं कोई स्टीफेंस या सेंट पोल्स नहीं आता था पर पढ़ाई करने वाले और कराने वाले यहां भी काफी काबिल दर्जे के होते थे। उन पढ़ाने वालों की ही काबिलियत का नतीजा था की हमें इम्तिहानो में अच्छे नंबर मिले , जिनकी बदोलत बेहतर भविष्य के लिए बिना मांगे ,फ्री में राय बांटने वालों ने हमें अपने शहर से बाहर भेजने के काबिल समझ लिया और दे डाली अपनी राय और आ पहुंचे हम बड़े शहरों के नामी कॉलेजज्  में।
पहले साल में जब आये थे तो इसी डर से कि प्रोफेसर अंग्रेजी में कुछ पूछ न ले , हम पूरा लेक्चर मौन मुद्रा में निकाल देते थे।  आते थे कुछ समाजसेवी किस्म के स्वघोषित महान लोग  हमदर्दी जताते हुए ये  पूछने कि तुम इतने चुप क्यों रहते हो , अब कैसे बताएं की बोलने में भी ये डर लगता है कि तुम में से ही कोई हसी न उड़ा दे , कहीं कोई गंवार न कह दे। शुरू में सोचा करते थे की हमने भी अंग्रेजी में टॉप मारा है पिच्यानवे प्रतिशत से ज्यादा नम्बरों से तो अब तो आगे कोई दिक्कत ही नहीं होगी पर यहाँ तो किसी ने अंग्रेजी के नंबर पूछे नहीं बल्कि ऐसे हिंदी मीडियम के छात्र जो अपने स्कूल में खुद की एक अलग पहचान रखते थे ,यहां किसी से बात तक करने से हिचकिचाते है।  
बंद कमरों में अपने गिने चुने दोस्तों के साथ सबटाइटल के सहारे अंग्रेजी फिल्मे देखने की कोशिश कर रहे इन लड़को का दोष सिर्फ इतना है की ये पिटबुल , एमिनेम या मायली सायरस के बजाय सोनू निगम या उदित नारायण के गाने सुन कर बड़े हुए।
खैर जो भी हो ,उज्जवल भविष्य का सपना लिए चले हिंदी वाले भले ही थोड़ी उपेक्षा का शिकार हुए हो पर इसी बहाने अपने सुविधा क्षेत्र से बाहर निकल कर दुनिया जानने का मौका तो मिला। इस न दिखने वाले संघर्ष को जो शायद कभी न कभी मंजिल पर पहुँच ही जाएगा ,को समझती हुई दो पंक्तियाँ जो किसी महान आदमी ने हमारे जैसों के लिए ही लिख दी थी :-

"मंजिल मिल ही जायेगी भटकते ही सही ,गुमराह तो वो है जो घरों से निकले ही नहीं "



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