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कलमक्रान्ति : 2020

अपने आजाद विचार,व्यंग्य या सुझाव रखने के लिए इस ब्लॉग पर मुझे या आपको कोई मनाही नहीं है
-कलमक्रान्ति

Friday, August 14, 2020

आजादी?

 "ये दाग दाग उजाला ये शब-गज़ीदा सहर,

वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं"

फ़ैज़ साहब ने ये नज़्म लिखी थी, 1947 में ।
आजादी को फ़ैज़ ऐसे परिवर्तन के रूप में 
देखना चाहते थे,
जो अमीरों - गरीबों के फासले कम कर देगी, 
मुल्क में खुशहाली लाएगी।
पर बंटवारा और दंगों में 
अपने ख्वाबों के मुल्क को जलता देख कर ही
 ये सच उन्होंने लिख डाला।

"Happy independence day"  
के संदेश आ रहे है सुबह से, पर कोई बता नही रहा
 किसकी इंडिपेंडेंस की खुशिया बांट रहे है,
क्योंकि भारत  सिर्फ एक जमीं के टुकड़े से कहीं ज्यादा है।
आजाद भारत के कुछ कायदे भी थे हमारे आइन में,
बिना किसी धार्मिक भेदभाव के नागरिकता थी,
निष्पक्ष न्यायपालिका और जवाबदेह सरकार थी,
आज का भारत नागरिकता के लिये धर्म पूछता है,
न्यायपालिका को आलोचना से चिढ़ है
और न्यायाधीश साहब को सरकार और राज्यसभा से प्रेम।
सरकार की कोई जवाबदेही नही,
सिर्फ मन की बात है,
सवाल जो पुछते है कोई,
वो जेलों में है ...
अखिल गोगोई या डॉक्टर काफिल की तरह।
आजाद भारत हुकूमतों को सच का आईना दिखाते 
गणेश शंकर विद्यार्थी और तिलक सरीखे पत्रकारो से प्रभावित था,
आज के भारत मे 
पत्रकार पक्षकार बन गए है हुक्मरानों के।
आजाद भारत गांधी को राष्ट्रपिता मानता था,
आजकल गांधी को देशद्रोही बोलने वाले संसद में है
भारत की आत्मा इसके गांवो और किसानों में बसती है,
अब  साल में 11000 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे है।

क्या वाकई आजाद है हम ?
या गुलाम हो गये है,
किसी की साम्प्रदायिक महत्वाकांक्षाओं के।
सच छुपा रहे है हम अपने ज़मीर से,
या सरकार झुठला रही है हमारे सच को?
फर्जी अन्धे राष्ट्रवाद की आड़ में,
शोषण के सच को दबाया जा रहा है।
पर जैसे कि पाश ने कहा है:
"सच घास है,
-तुम्हारे हर किये धरे पर उग आएगा"


Happy Independence Day!!

Saturday, May 9, 2020


4 रोटी, कुछ पत्थर और ट्रैक के अलावा कुछ दिखा?


थोड़ा गौर से देखेंगे तो एक पूरा तंत्र दिखेगा, जिसने उन मजदूरों को इस ट्रैक पर धकेला है।
ये तंत्र बना है गैरजिम्मेदार सरकार, संवेदनहीन न्यायपालिका और अपनी आत्मा बेच चुके कुछ पत्रकारों से जिन्होंने इन मजदूरों की हर गुहार को दबा दिया।




मात्र 4 घण्टे का वक्त देकर हमारी सरकार ने लोक डाउन की घोषणा कर दी। कोरोना से लड़ने के लिए लोक डाउन जरूरी था, पर 4 करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूरों वाले हमारे देश के लिए बिना किसी व्यवस्था के सब कुछ अचानक से रोक देना सही था?
अगर सही होता तो हाइवे और रेलवे ट्रैक्स पर हजारों श्रमिक अपने परिवारो साथ जाते न दिखते। 


सरकार की जिम्मेदारी थी कि वो उन श्रमिको को भरोसे में ले, पर सरकार के समय पर निर्णय ना ले पाने का खामियाजा ग़रीब वर्ग भुगत रहा है।



हमारा संविधान कुछ मूलभूत अधिकार देता है इस देश में रहने वाले हर व्यक्ति को, प्रवासी मजदूरों को भी। जब किसी को इन अधिकारों से वंचित रखा जाए तो इन अधिकारों की रक्षा करने का काम न्यायपालिका का है।
अनुच्छेद 21 : जीवन का अधिकार, जिसमे जीविका का अधिकार भी शामिल है, सिर्फ नाम मात्र के जीवन का नही बल्कि गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार इस देश मे रहने वाले हर व्यक्ति को देता है।
भारत मे 4 करोड़ से ज्यादा प्रवासी कामगार है, लोकडाउन के चलते इनमें से बहोतों की आजीविका रुक गयी, ऐसे में ये जिम्मदारी सरकार की थी कि इन्हें आर्थिक सहायता दे व सुरक्षित घर पहुंचाए। चूंकि सरकार ने प्राथमिकता नही दी, अतः कर्तव्य सुप्रीम कोर्ट का था कि इन मजदूरों के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार की रक्षा करे।

पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया?
1 अप्रेल: एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई जिसमें मजदूरों के लिए न्यूनतम आय की मांग रखी गयी।
सुप्रीम कोर्ट बेंच ने बड़ी ही संवेदनहीनता से याचिकाकर्ता से ही प्रश्न कर लिया: " जब सरकार खाने की व्यवस्था कर रही है तो आय की क्या जरूरत है "
27 अप्रेल तक आते आते इन मजदूरों के जीवन के अधिकार के सवाल पर हमारे देश के मुख्य न्यायाधीश बोबडे साब ने बड़ी ही बेशर्मी से कह दिया: " अभी ऐसी स्थिति नही है कि अधिकारों को पहले की तरह प्राथमिकता दी जाए ''

अब तो रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस ए पी शाह, भी कह चुके है कि सुप्रीम कोर्ट अपने संवैधानिक कर्तव्यों को पूरा नही कर रहा है।

 किसी मुल्क में न्याय की स्थापना 2 मुख्य चीज़ो पर निर्भर करती है:
न्यायालय की कानूनी वैद्यता 
और
न्यायालय की विश्वसनीयता

कानूनी वैद्यता तो संविधान प्रदान कर देता है, परंतु विश्वसनीयता लोगों के भरोसे से कमानी पड़ती है। सुप्रीम कोर्ट अपने हालिया रवैये से अपने ही लोगों की नजरों में खुद की बरसो से कमाई प्रतिष्ठा गंवा दी है।






15 April 2020 : 
मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर प्रवासी मजदूर इकट्ठा हुए थे, प्रोटेस्ट करने के लिए, घर जाने के लिए सरकार से गुहार करने के लिए,

अर्णब गोस्वामी ने उस दिन
चिल्ला चिल्ला के इन्हें "पेड एक्टर्स" बोला था, 
एक फेक न्यूज चलाई जिसमे इन मजदूरों के इकट्ठे होने को स्टेशन के पास की मस्जिद से जोड़ा था 
अर्णब ने कहा था कि ये लोग यहां "तफरी करने आये है,  जैसे मेले में लोग आते है"



पत्रकारिता का चोगा ओढ़े एक और गिद्ध : सुधीर चौधरी।
जब रेल में इन प्रवासी श्रमिकों से लिये जाने वाले भाड़े के लिए सरकार को प्रश्न पूछे गए तो इन महाशय ने इस प्रकार अपनी फूहड़ सोच का परिचय दिया:




घुटने टेके न्यायपालिका और बिके हुए मीडिया ने सरकार की जवाबदेही का मख़ौल बना कर रख दिया है। औरंगाबाद के रेलवे ट्रैक पर गई 17 जिंदगियों का दोष इसी सिस्टम पर है जिसे हमने पनपने दिया है।

भाषा और बातचीत की गरिमा बिगाड़ रहे अर्णब, सुधीर या ऐसे अनेको नफरत बेचने वालों के प्रति अपनी निजी घृणा को मैं सार्वजनिक मंच पर लिखने से अपने आप को रोकता था। पर अब वे इतना अधिक नीचे गिर चुके है कि समाज के सामूहिक विवेक की निर्ममता से हत्या कर रहे है।  सरकार के हर काम को छाती पीटने वाले फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद से जोड़ कर मर रहे मजदूरों को  "भाड़े के एक्टर्स" बुलाते है ये गिद्ध।

अब मुझे फ़र्क़ नही पड़ता, की कोई मुझे मेरी इस भाषा के लिए मुझे सनकी समझे। रेलवे ट्रैक पर पड़े रोटी के टुकड़े देखकर अब चुप नही रहा जाता। 





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